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मुंशी प्रेमचंद ः सेवा सदन


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एक महीना बीत गया। सदन ने अपने इस नए धंधे की चर्चा घर में किसी से न की। वह नित्य सबेरे उठकर गंगा-स्नान के बहाने चला जाता। वहां से दस बजे घर आता। भोजन करके फिर चल देता और तब का गया-गया घड़ी रात गए, घर लौटता। अब उसकी नाव घाट पर की सब नावों से अधिक सजी हुई, दर्शनीय थी। उस पर दो-तीन मोढे रखे रहते थे और एक जाजिम बिछी रहती थी। इसलिए शहर के कितने ही रसिक, विनोदी मनुष्य उस पर सैर किया करते थे। सदन किराए के विषय में खुद बातचीत न करता। यह काम उसका नौकर झींगुर मल्लाह किया करता था। वह स्वयं तो कभी तट पर बैठा रहता तो कभी नाव पर जा बैठता था। वह अपने को बहुत समझाता कि काम करने में क्या शरम? मैंने कोई बुरा काम तो नहीं किया है, किसी का गुलाम तो नहीं हूं, कोई आंखें तो नहीं दिखा सकता। लेकिन जब वह किसी भले आदमी को अपनी ओर आते देखता, तो आप-ही-आप उसके कदम पीछे हट जाते और लज्जा से आंखें झुक जातीं। वह एक जमीदार का पुत्र था और एक वकील का भतीजा। उस उच्च पद से उतरकर मल्लाह का उद्यम करने में उसे स्वभावतः लज्जा आती थी, जो तर्क से किसी भांति न हटती। इस संकोच से उसकी बहुत हानि होती थी। जिस काम के लिए वह एक रुपया ले सकता था, उसी के लिए उसे आधे में ही राजी होना पड़ता था। ऊंची दुकान फीके पकवान होने पर भी बाजार में श्रेष्ठ होती है। यहां तो पकवान भी अच्छे थे, केवल एक चतुर सजीले दुकानदार की कमी थी। सदन इस बात को समझता था, पर संकोचवश कुछ कह न सकता था। तिस पर भी डेढ़-दो रुपए नित्य मिल जाते थे और वह समय निकट आता जाता था, जब गंगा-तट पर उसका झोंपड़ा बनेगा और आबाद होगा। वह अब अपने बल-बूते पर खड़े होने के योग्य होता जाता था। इस विचार से उसके आत्मसम्मान को अतिशय आनंद होता था। वह बहुधा रात-की-रात इन्हीं अभिलाषाओं की कल्पना में जागता रहता।

इसी समय म्युनिसिपैलिटी ने वेश्याओं के लिए शहर से हटकर मकान बनवाने का निश्चय किया, लाला भगतराम को इसका ठीका मिला। नदी के इस पार ऐसी जमीन न मिल सकी, जहां वह पजावे लगाते और चूने के भट्ठे बनाते। इसलिए उन्होंने नदी पार जमीन ली थी और वहीं सामान तैयार करते थे। उस पार ईटें, चूना आदि लाने के लिए उन्हें एक नाव की जरूरत हुई। नाव तय करने के लिए मल्लाहों के पास आए। सदन से भेंट हो गई। सदन ने अपनी नाव दिखाई, भगतराम ने उसे पसंद किया। झींगुर से मजूरी तय हुई, दो खेवे रोज लाने की बात ठहरी। भगतराम ने बयाना दिया और चले गए।

रुपए की चाट बुरी होती है। सदन अब वह उड़ाऊ, लुटाऊ युवक नहीं रहा। उसके सिर पर अब चिंताओं का बोझ है, कर्त्तव्य का ऋण है। वह इससे मुक्त होना चाहता है। उसकी निगाह एक-एक पैसे पर रहती है। उसे अब रुपए कमाने और घर बनवाने की धुन है। उस दिन वह घड़ी रात रहे, उठकर नदी किनारे चला आया और झींगुर को जगाकर नाव खुलवा दी। दिन निकलते-निकलते उस पार जा पहुंचा। लौटती बार उसने स्वयं डांड ले लिया और हंसते हुए दो-चार हाथ चलाए, लेकिन इतने से ही नाव की चाल बढ़ते देखकर उसने जोर-जोर से डांड चलाने शुरू कर दिए। नाव की गति दूनी हो गई। झींगुर पहले-पहले तो मुस्कराता रहा, लेकिन अब चकित हो गया।

आज से वह सदन का दबाव कुछ अधिक मानने लगा। उसे मालूम हो गया कि यह महाशय निरे मिट्टी के लौंदे नहीं हैं। काम पड़ने पर यह अकेले नाव को पार ले जा सकते हैं, और अब मेरा टर्राना उचित नहीं।

उस दिन दो खेवे हुए, दूसरे दिन एक ही हुआ। क्योंकि सदन को आने में देर हो गई। तीसरे दिन उसने नौ बजे रात को तीसरा खेवा पूरा किया, लेकिन पसीने से डूबा था। ऐसा थक गया था कि घर तक आना पहाड़ हो गया। इसी प्रकार दो मास तक लगातार उसने काम किया और इसमें उसे अच्छा लाभ हुआ। उसने दो मल्लाह और रख लिए थे।

सदन अब मल्लाहों का नेता था। उसका झोंपड़ा तैयार हो गया था। भीतर एक तख्ता था, दो पलंग, दो लैंप, कुछ मामूली बर्तन भी। एक कमरा बैठने का था, एक खाना पकाने का, एक सोने का। द्वार पर ईंटों का चबूतरा था। उसके इर्द-गिर्द गमले रखे हुए थे। दो गमलों में लताएं लगी हुई थीं, जो झोंपड़े के ऊपर चढ़ती जाती थीं। यह चबूतरा अब मल्लाहों का अड्डा था। वह बहुधा वहीं बैठे तंबाकू पीते। सदन ने उनके साथ बड़ा उपकार किया था। अफसरों से लिखा-पढ़ी करके उन्हें आए दिन बेगार से मुक्त करा दिया था। इस साहस के काम ने उसका सिक्का जमा दिया था। उसके पास अब कुछ रुपए भी जमा हो गए थे और वह मल्लाहों को बिना सूद के रुपए उधार देता था। अब उसे एक पैर-गाड़ी की फिक्र थी, शौकीन आदमियों के सैर के लिए वह एक सुंदर बजरा भी लेना चाहता था और हारमोनियम के लिए तो उसने पत्र डाल ही दिया। यह सब उस देवी के आगमन की तैयारियां थीं, जो एक क्षण के लिए भी उसके ध्यान से न उतरती थी।

सदन की अवस्था अब ऐसी थी कि वह गृहस्थी का बोझ उठा सके, लेकिन अपने चचा की सम्मति के बिना वह शान्ता को लाने का साहस न कर सकता था। वह घर पर पद्मसिंह के साथ भोजन करने बैठता, तो निश्चय कर लेता कि आज इस विषय को छेड़कर तय कर लूंगा। पर उसका इरादा कभी पूरा न होता, उसके मुंह से बात ही न निकलती।

यद्यपि उसने पद्मसिंह से इस व्यवसाय की चर्चा न की थी, पर उन्हें लाला भगतराम से सब हाल मालूम हो गया था। वह सदन की उद्योगशीलता पर बहुत प्रसन्न थे। वह चाहते थे कि एक-दो नावें और ठीक कर लीं जाएं और कारोबार बढ़ा लिया जाए। लेकिन जब सदन स्वयं कुछ नहीं कहता था, तो वह भी इस विषय में चुप रहना ही उचित समझते थे। वह पहले ही उसकी खातिर करते थे, अब कुछ आदर भी करने लगे और सुभद्रा तो उसे अपने लड़के के समान मानने लगी।

एक दिन, रात के समय सदन अपने झोंपड़े में बैठा हुआ नदी की तरफ देख रहा था। आज न जाने क्यों नाव के आने में देर हो रही थी। सामने लैंप जल रहा था। सदन के हाथ में एक समाचार-पत्र था, पर उसका ध्यान पढ़ने में न लगता था। नाव के न आने से उसे किसी अनिष्ट की शंका हो रही थी। उसने पत्र रख दिया और बाहर निकलकर तट पर आया। रेत पर चांदनी की सुनहरी चादर बिछी हुई थी और चांद की किरणें नदी के हिलते हुए जल पर ऐसी मालूम होती थीं, जैसे किसी झरने से निर्मल जल की धारा क्रमशः चौड़ी होती हुई निकलती है। झोंपड़े के सामने चबूतरे पर कई मल्लाह बैठे हुए बातें कर रहे थे कि अकस्मात् सदन ने दो स्त्रियों को शहर की ओर से आते देखा। उनमें से एक ने मल्लाहों से पूछा– हमें उस पार जाना है, नाव ले चलोगे?

सदन ने शब्द पहचाने। यह सुमनबाई थी। उसके हृदय में एक गुदगुदी-सी हुई, आंखों में एक नशा-सा आ गया। लपककर चबूतरे के पास आया और सुमन से बोला– बाईजी, तुम यहां कहां?

सुमन ने ध्यान से सदन को देखा, मानो उसे पहचानती ही नहीं। उसके साथ वाली स्त्री ने घूंघट निकाल लिया और लालटेन के प्रकाश से कई पग हटकर अंधेरे में चली गई। सुमन ने आश्चर्य से कहा– कौन? सदन?

मल्लाहों ने उठकर घेर लिया, लेकिन सदन ने कहा– तुम लोग इस समय यहां से चले जाओ। ये हमारे घर की स्त्रियां हैं, आज यहीं रहेंगी। इसके बाद वह सुमन से बोला– बाईजी, कुशल समाचार कहिए। क्या माजरा है?

सुमन– सब कुशल ही है, भाग्य में जो कुछ लिखा है, वही भोग रही हूँ। आज का पत्र तुमने अभी न पढ़ा होगा। प्रभाकर राव ने न जाने क्या छाप दिया कि आश्रम में हलचल मच गई। हम दोनों बहनें वहां एक दिन भी और रह जातीं, तो आश्रम बिल्कुल खाली हो जाता। वहां से निकल आने में कुशल थी। अब इतनी कृपा करो कि हमें उस पार ले जाने के लिए एक नाव ठीक कर दो। वहां से हम इक्का करके मुगलसराय चली जाएंगी। अमोला के लिए कोई-न-कोई गाड़ी मिल ही जाएगी। यहां से रात कोई गाड़ी नहीं जाती?

सदन– अब तो तुम अपने घर ही पहुँच गईं, अमोला क्यों जाओगी? तुम लोगों को कष्ट तो बहुत हुआ, पर इस समय तुम्हारे आने से मुझे जितना आनंद हुआ, यह वर्णन नहीं कर सकता। मैं स्वयं कई दिन से तुम्हारे पास आने का इरादा कर रहा था, लेकिन काम से छुट्टी ही नहीं मिलती। मैं तीन-चार महीने से मल्लाह का काम करने लगा हूं। यही तुम्हारा झोंपड़ा है, चलो अंदर चलो।

सुमन झोंपड़े में चली गई, लेकिन शान्ता वहीं अंधेरे में चुपचाप सिर झुकाए रो रही थी। जब से उसने सदनसिंह के मुंह से वे बातें सुनी थीं, उस दुखिया ने रो-रोकर दिन काटे थे। उसे बार-बार अपने मान करने का पछतावा होता था। वह सोचती, यदि मैं उस समय उनके पैरों पर गिर पड़ती, तो उन्हें मुझ पर अवश्य दया आ जाती। सदन की सूरत उसकी आंखों में फिरती और उसकी बातें उसके कानों में गूंजती। बातें कठोर थीं, लेकिन शान्ता को वह प्रेम-करुणा से भरी हुई प्रतीत होती थीं। उसने अपने मन को समझा लिया था कि यह सब मेरे कुदिन का फल है, सदन का कोई अपराध नहीं। वह वास्तव में विवश हैं। अपने माता-पिता की आज्ञा का पालन करना उनका धर्म है। यह मेरी नीचता है कि मैं उन्हें धर्म के मार्ग से फेरना चाहती हूं। हा! मैंने अपने स्वामी से मान किया! मैंने अपने आराध्यदेव का निरादर किया, मैंने अपने कुटिल स्वार्थ के वश होकर उनका अपमान किया। ज्यों-ज्यों दिन बीतते थे, शान्ता की आत्मग्लानि बढ़ती थी। इस शोक, चिंता और विरह-पीड़ा से वह रमणी इस प्रकार सूख गई थी, जैसे जेठ महीने में नदी सूख जाती है।

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